हज़रत बेदम शाह वारसी, Hazrat Bedam Shah Warsi, सरकार वारिस पाक के सबसे प्रिय मुरीद थे जिनका असली नाम गुलाम हुसैन था। ये 19वीं सदी के एक प्रसिद्ध सूफी शायर थे जिन्होंने हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहजीब में शायरी को नई शान बख्शी।
हजरत बेदम शाह वारसी का सूफी कतार-
बेदम शाह वारसी, वारसिया सूफी शायरों की कतार में सबसे आगे नजर आते हैं, अपनी शायरी का पूरा श्रेय आप अपने पीर-ओ-मुर्शिद सरकार वारिस पाक को देते हैं।
हजरत बेदम शाह वारसी के गुरु-
सूफी परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है, गुरु ही अपने शिष्य को ईश्वर/अल्लाह से मिलन का मार्ग बताता है और उस मार्ग पर चलते हुए उसकी निगरानी भी करता है, बेदम शाह वारसी भी अपने मुर्शिद की महत्ता का वर्णन करते हुए लिखते है-
हज़रत बेदम शाह वारसी की ग़ज़लें-
अगर काबे का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
तो फिर सज्दा मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
वही दिल है जो हुस्न-ओ-इश्क़ का काशाना हो जा
वो सर है जो किसी की तेग़ का नज़राना हो जाए
ये अच्छी पर्दा-दारी है ये अच्छी राज़दारी है
कि जो आए तुम्हारी बज़्म में दीवाना हो जाए
मिरा सर कट के मक़्तल में गिरे क़ातिल के क़दमों पर
दम-ए-आख़िर अदा यूँ सज्दा-ए-शुकराना हो जाए
तिरी सरकार में लाया हूँ डाली हसरत-ए-दिल की
अजब क्या है मिरा मंज़ूर ये नज़राना हो जाए
शब-ए-फ़ुर्क़त का जब कुछ तूल कम होना नहीं मुमकिन
तो मेरी ज़िंदगी का मुख़्तसर अफ़्साना हो जाए
वो सज्दे जिन से बरसों हम ने का’बे को सजाया
जो बुत-ख़ाने को मिल जाएँ तो फिर बुत-ख़ाना हो जाए
किसी की ज़ुल्फ़ बिखरे और बिखर कर दोश पर आए
दिल-ए-सद-चाक उलझे और उलझ कर शाना हो जाए
यहाँ होना न होना है न होना ऐन होना है
जिसे होना हो कुछ ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना हो जाए
सहर तक सब का है अंजाम जल कर ख़ाक हो जा
बने महफ़िल में कोई शम्अ या परवाना हो जाए
वो मय दे दे जो पहले शिबली ओ मंसूर को दी थी
तो ‘बेदम’ भी निसार-ए-मुर्शिद-ए-मय-ख़ाना हो जाए
हजरत बेदम शाह वारसी की अगली ग़ज़ल-
छिड़ा पहले-पहल जब साज़-ए-हस्ती
तो हर पर्दे ने दी आवाज़-ए-हस्ती
ख़याल-ए-यार तेरे सदक़े जाऊँ
तिरे दम से है सोज़-ओ-साज़-ए-हस्ती
मैं मरने के लिए पैदा हुआ हूँ
मिरा अंजाम है आग़ाज़-ए-हस्ती
सुकून-ए-काएनात-ए-दिल बक़ा है
अजल इक जुम्बिश-ए-पर्वाज़-ए-हस्ती
मिरी ख़ाक-ए-सहर का ज़र्रा ज़र्रा
है ‘बेदम’ मख़्ज़न-ए-सद-राज़-ए-हस्ती
-हज़रत बेदम शाह वारसी।